यह कविता पहाड़ों की उस मौन चीख को आवाज़ देती है, जिसे सुनने की फुर्सत आज किसी के पास नहीं है। हिमाचल और उत्तराखंड की हालिया बारिश और प्राकृतिक आपदाओं ने जो तबाही मचाई है, उसकी तस्वीर इस कविता के हर शब्द में नजर आती है। टूटते पहाड़, मलवे में बहते गाँव, जंगलों की कटती सांसें और नदियों की बदलती धारा — सब इस कविता में जीवंत हो उठते हैं।
यह सिर्फ कविता नहीं, बल्कि उन पर्वतीय राज्यों की सच्चाई है, जहां विकास के नाम पर सुरंगें खोदी जा रही हैं, सड़कों के लिए पहाड़ चिरे जा रहे हैं और कंक्रीट के बोझ तले धरती कराह रही है। हिमाचल प्राकृतिक आपदा कविता, उत्तराखंड वर्षा आपदा कविता, प्राकृतिक आपदा पर कविता, पर्यावरण विनाश पर कविता, और पहाड़ों की पुकार कविता जैसे विषय इस रचना में गहराई से जुड़े हैं।
यह सवाल करती है — क्या विकास का मतलब सिर्फ प्रकृति का नाश है? क्या हर साल आने वाली तबाही को हम बस किस्मत मानकर छोड़ देंगे? यह कविता आपको सोचने पर मजबूर करती है कि अगर हम आज नहीं संभले, तो आने वाली पीढ़ियों के लिए क्या बच पाएगा?
दोस्तों, अगर यह कविता आपके दिल को छूती है, तो इसे दूसरों तक ज़रूर पहुंचाइए। पहाड़ों की ये पुकार सिर्फ शब्द नहीं, एक चेतावनी है — जिसे अनसुना करना हमारे भविष्य के साथ अन्याय होगा।
Himachal aur Uttarakhand Ki Prakritik Aapda Par Kavita
रोते इने पहाड़ों की चीख-पुकार,
कौन सुने? सरकारे अंधी, इंसान बहरे —
ये गुहार कौन सुने?
देव नाराज, उजड़ा समाज,
दरकते पहाड़ — कौन सुने?
मलबे में धराली बहती मंडी,
रोता सिराज — कौन सुने?
कौन सुने उन नदियों को
जो बदल रही है मलबों में,
उन घाटियों को कौन सुने
जो बदल रही है सड़कों में?
जंगल बेजान होता कटान,
बहते मकान… अब कौन सुने?
दलदल मैदान, हलचल
पहाड़ बनते श्मशान…
अब कौन सुने?
कौन सुने?
—
सुने वो जिन्हें फर्क पड़े,
हिमाचल का बेड़ा गर्क करें,
देवभूमि को स्वर्ग से नरक करें,
पहाड़ चीर, खुद गर्ज बने।
जो देवताओं का उपहास करें,
संस्कृति का विनाश करें,
प्रकृति का ह्रास करें,
और फिर अंत में आंख भरे।
—
इंसानों! गलती हमारी है…
सुविधाएं हम ही चाहते हैं,
गांव की हरियाली छोड़,
कंक्रीट के शहर बसाते हैं।
देवों की जो वाणी हो,
उस पर ज़रा भी ध्यान नहीं।
जो पहाड़ चीर कर बनते हैं श्मशान है—
ये मकान नहीं!
किस के लिए ये सुविधाएं इतनी — किस के लिए?
ये टनल बनाते हो,
हर साल प्रलय झेलते हो,
फिर भी संभल नहीं पाते हो।
—
संभल जाओ!
मत चीरों सीना बढ़ाने,
खुद ही आफत को…
पहाड़ बने हैं सुकून के लिए,
ना कि शाने-शौकत को।
पहाड़ बने हैं सुकून के लिए,
ना कि शाने-शौकत को।।
Himachal Aur Uttarakhand Aapda Par Kavita In Hinglish
Rote ine pahadon ki cheekh-pukar,
Kaun sune? Sarkare andhi, insaan bahre —
Yah guhar kaun sune?
Dev naraj, ujda samaj,
Dharkate pahad — kaun sune?
Malabe mein dharali bahti Mandi,
Roha Siraj — kaun sune?
Kaun sune un nadiyon ko
Jo badal rahi hai malabon mein,
Un ghatiyon ko kaun sune
Jo badal rahi hai sadkon mein?
Jungle bejan hota katan,
Bahte makan… ab kaun sune?
Daldal, maidan, hulchul,
Pahad bante shmashan…
Ab kaun sune?
Kaun sune?
—
Sune vo jinhen fark pade,
Himachal ka beda gark karein,
Devbhumi ko swarg se narak karein,
Pahad chir, khud garj bane.
Jo devtaon ka uphaas karein,
Sanskriti ka vinash karein,
Prakriti ka hrash karein,
Aur fir ant mein aankh bhare.
—
Insanon! Galti hamari hai…
Suvidhaen ham hi chahte hain,
Gaon ki hariyali chhod,
Concrete ke shahar basaate hain.
Devon ki jo vani ho,
Us per zara bhi dhyan nahin.
Jo pahad chir kar bante hain shmashan —
Yah makan nahin!
Kis ke liye yah suvidhaen itni — kis ke liye?
Yah tunnel banate ho,
Har sal pralay jhelte ho,
Fir bhi sambhal nahin paate ho.
—
Sambhal jao!
Mat cheeron seena badhane,
Khud hi aafat ko…
Pahad bane hain sukun ke liye,
Na ki shaane-shaukat ko
Pahad bane hain sukun ke liye,
Na ki shaane-shaukat ko❤️🙏
दोस्तों, यह कविता सिर्फ शब्दों का संग्रह नहीं, बल्कि पहाड़ों की सच्ची पुकार है — हिमाचल और उत्तराखंड में आई प्राकृतिक आपदाओं का दर्द, जो हमें याद दिलाता है कि प्रकृति से छेड़छाड़ का परिणाम कितना भयावह हो सकता है। हमें समय रहते जागना होगा, वरना यह सुंदर पर्वत और घाटियाँ सिर्फ यादों में रह जाएँगी।
अगर आपको यह कविता दिल को छू गई हो, तो इसे दूसरों तक जरूर पहुँचाएँ।
और हाँ — आप इस कविता को मेरी आवाज़ में मेरे YouTube चैनल पर भी सुन सकते हैं।
आपकी राय और सुझाव मेरे लिए बहुत कीमती हैं, तो कमेंट में जरूर बताइए कि आपको यह कविता कैसी लगी।
धन्यवाद 🙏
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